ज्योतिषशास्त्र का सम्बन्ध मनुष्य के जन्म-जन्मान्तरों से जुड़ा हुआ है। इसलिए ज्ञात – अज्ञात अवस्था में भी निरन्तर हमें ज्योतिषशास्त्र किसी न किसी रूप में प्रभावित करता रहता है। ज्योतिषशास्त्र का दूसरा नाम ‘कालविधान शास्त्र” है। क्योंकि काल का निरूपण भी ज्योतिषशास्त्र द्वारा ही होता है। काल के प्रभाव के सम्बन्ध में ‘कालाधीनं जगत् सर्वम् तथा “काल: सृजति भूतानि काल: संहरते प्रजा:’ ये सृक्तियाँ ही पर्याप्त हैं। मानव जीवन काल तथा कर्म के अधीन होता है। जैसा कि आचार्य वराहमिहिर ने अपने ग्रन्थ लघुजातक में लिखा है –
यदुपचितमन्यजन्मनि शुभाउशुभ॑ तस्य कर्मण: पंक्तिम।
व्यज्जयति शास्त्रमेतत् तमसि द्रव्याणि दीप इब॥
अर्थात् पूर्वजन्म के कर्मानुसार ही मनुष्य का जन्म, उसकी प्रवृत्तियाँ तथा उसके भाग्य का निर्माण होता हैं। भारतीय ज्ञान – विज्ञान की परम्परा में “वेद” को सर्वविद्या का मूल कहा गया है। उसी वेद के चक्षुरूपी अंग को मनीषीयों द्वारा ज्योतिषशास्त्र की संज्ञा प्रदान की गयी है। आचार्य भास्कराचार्य ने स्वग्रन्थ सिद्धान्तशिरोमणि में ज्योतिष को परिभाषित करते हुए लिखा है कि –
बेदस्थ निर्मल चक्षु: ज्योतिषशास्त्रमकल्मषम्।
विनैतदखिल श्रौतं स्मात्त कर्म न सिद्धयति॥
अर्थात् ज्योतिष वेद का निर्मल चक्षु है, जो अकल्मष (दोषरहित) है और इसके ज्ञानाभाव में समस्त बेदप्रतिपाद्य विषय यथा- श्रौत, स्मार्त्त यज्ञादि क्रिया की सिद्धि नहीं हो सकती। सर्वसाधारण को सृष्टि के अनेक चमत्कारों का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त होकर उनकी जिज्ञासा पूरी हो सके, इस हेतु हमारे देश के अलौकिक बुद्धिमान, महान तपस्वी व त्रिकालदर्शी महर्षियों ने अपने तपोबल के आधार पर आम जनमानस के लाभार्थ जो अनेक शास्त्र निर्माण किये, उनमें ज्योतिषशास्त्र का स्थान सर्वश्रेष्ठ व प्रथम है क्योंकि सृष्टि के प्रत्येक वस्तु की उत्पत्ति, प्रगति व लयादि कालाधीन है और उस काल का सम्पूर्ण वर्णन तथा शुभाशुभ परिणाम आकाशस्थ ग्रहों के उदय,अस्त,युति, प्रतियुति, गति व स्थिति पर निर्भर है। इन्हीं ग्रहों की शुभाशुभ स्थिति पर जगत के मानव प्राणी का सुख-दुःख, हानि- लाभ, जीवन-मरण पूर्णरूप से अवलम्बित है। अत: ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान मानव के लिये अधिक
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महत्वपूर्ण है।ज्योतिषशास्त्र में मूलत: ग्रह, नक्षत्र, तारा, उल्का आदि के विषय में अध्ययन किया जाता है। इस ब्रह्माण्ड में जो भी चराचर जीव हैं उनमें पंचमहाभूत, तीनों गुण (सत्व, रज, तम) सात प्रकार की धातुएँ आदि ग्रहनक्षत्रादि के प्रभाव से रहते है। इनमें से किसी में पार्थिव तत्व अधिक पाया जाता है तो किसी में जल, किसी में अग्नितत्व, कहीं वायु का अंश अधिक होता है तो कहीं आकाश का भाग अधिक होता है। किसी जातक में सत्वगुणी ग्रहों के प्रभाव से रजोगुण अधिक होता है। उसका शरीर मांसल होता है, किसी में अस्थि की प्रधानता होती है तो किसी का केशाधिक्य होता है। इन सभी परिस्थितियों का कारण ग्रहयोगबल है। जिस जातक का जैसा कर्म रहता है वह उस तरह के ग्रहयोग में उत्पन्न होकर जीवन भर कर्मानुसार शुभाशुभ फल का भोग करता रहता है। विषयों से सम्बद्ध सिद्धान्तों का ऋषि- महर्षियों ने प्रवर्तन किया। इनकी परम्पराओं का कालक्रम में परवर्ती आचार्यों ने पोषण किया और विकास के क्रम में विषय की दृष्टि से ज्योतिष शास्त्र को तीन स्कन्धों सिद्धान्त, संहिता, होरा में विभाजित किया। आज भी इस शास्त्र के आचार्य एवं जिज्ञासु विद्वान इसके संवर्द्धन में सतत तत्पर हैं।
ज्योतिष की परिभाषा
ज्योतिषशास्त्र का क्षेत्र इतना विहंगम है कि उसे एक वाक्य में परिभाषित करना सरल नहीं, तथापि विद्वानों ने इसे अलग-अलग रूप में परिभाषित किया है। सामान्यतया आकाश में स्थित ग्रहपिण्डों एवं नक्षत्रपिण्डों की गति, स्थिति तथा उसके प्रभावादि का निरूपण जिस शास्त्र के अन्तर्गत किया जाता हैं, उसे ‘ज्योतिष’ कहते है अर्थात् जिस शास्त्र में सूर्यादि ग्रहों की गति, स्थिति सम्बन्धि समस्त नियम, एवं उसके भौतिक पदार्थों के उपर पड़ने वाला प्रभाव का वैज्ञानिक रीति से विश्लेषण किया जाता है, उसे ‘ज्योतिषशास्त्र’ कहते है। वेद का अंग होने के कारण इसे ‘वेदांग’ भी कहा जाता है। संक्षिप्त रूप में ज्योतिष को इस प्रकार से भी परिभाषित करते है – ‘ग्रहगणितं ज्योतिषम् । अर्थात् ग्रहों का गणित जिस शास्त्र के अन्तर्गत किया जाता है उसे ‘ज्योतिष’ कहते है। इसी प्रसंग में ‘ज्योतिष’ एवं ‘ज्यौतिष’ दो शब्दों की उपलब्धि होती है, परन्तु समस्त प्राचीन ग्रन्थों में ‘ज्योतिष’ शब्द को देखकर विद्वानों ने इसी को व्यवहार में वर्णित किया है। ‘ज्यौतिष’ शब्द आधुनिक ज्योतिर्विदों की कल्पना है। व्याकरणदृष्ट्या दोनों ही सही है। ‘द्यतेदीप्तौ’ धातु से प्रकाश अर्थ में ज्योतिष शब्द की व्युत्पत्ति हुई है, जहाँ “द्यतेऋषीनाद्यौश्च यः ” सूत्र से जकार होता है। वेद के साथ ही इस शास्त्र का आविर्भाव होने के कारण इसका वेदांग होना भी प्रामाणिक है। वेद में विश्व के समस्त विषयों व नियमों का उल्लेख है, इससे इतर कोई भी विषय नहीं हैं। परन्तु सामान्यतया वेद के मुख्य प्रयोजन है यज्ञसम्पादन क्रिया, और यह कार्य वेदवाक्यांश के आधार पर कालाधीन है। अर्थात् कालविशेष में की जाने वाली याज्ञिक क्रिया सफल होती है। कालनिर्धारण ज्योतिषशास्त्र के द्वारा ही सम्भव है, अन्य किसी शास्त्र के द्वारा नहीं। इसीलिए भास्कराचार्य जी का भी कथन है-
वेदास्तावद्यज्ञकर्मप्रवृत्ताः यज्ञाः प्रोक्तास्ते तु कालाश्रयेण ।
शास्त्रादस्मात् कालबोधो यतः स्याद्वेदाङ्गत्वं ज्योतिषस्योक्तमस्मात्।। :
इस आधार पर ज्योतिष की परिभाषा इस प्रकार भी करते हैं-
‘वेदचक्षुः किलेदं स्मृतं ज्योतिषम्।
अर्थात् निश्चयेन ज्योतिष वेद का चक्षु रूपी अंग है। वेद का अंग होने से यह ‘वेदांग’ है।यज्ञादि कर्मों के द्वारा भगवदोपासना वेद का परम लक्ष्य है। उपर्युक्त यज्ञादि कर्म काल पर आश्रित हैं और इस परम पवित्र कार्य के लिए काल का विधायक शास्त्र ज्योतिषशास्त्र है। अत: इसे वेदांग की संज्ञा दी गई है। व्याकरण, ज्योतिष, निरूक्त, कल्प, शिक्षा और छन्द ये छ: वेद के अंगकहे गये हैं। जिनमें ज्योतिषशास्त्र नेत्र रूप में प्रसिद्ध है। वर्तमान काल की घटनाओं को नेत्र से देखा जा सकता है किन्तु भूत और भविष्य का दर्शन तो केवल वेद के चक्षु रूप ज्योतिष शास्त्र द्वारा सम्भव है।ज्योतिषशास्त्र के मुख्य रूप से तीन स्कन्ध है –
1. सिद्धान्त
2. संहिता
3. होरा या फलित
वर्तमान ज्योतिषशास्त्र का जो स्वरूप हमें देखने को मिलता है, उसका श्रेय महात्मा लगध को जाता है। उन्होंने ही ‘वेदांग ज्योतिष’ की रचना करने ज्योतिष को स्वतन्त्र रूप से प्रतिपादित किया। यद्यपि ज्योतिष आज भी वहीं है, जो पूर्व में था, केवल काल भेद के कारण इसके स्वरूपों में भिन्नता दृष्टिगोचर होती है। भगवान सूर्य के अंशावतार ने भी सूर्यसिद्धान्त में यही कहा है कि-
शास्त्रमाद्यं तदेवेदं यत्पूर्वं प्राह भास्करः ।
युगानां परिवर्तेन कालभेदोऽत्र केवलः ॥
अर्थात यह मूल शास्त्र है, जिसके बारे में सूर्य देव ने अतीत में बात की थी। यहां समय का फर्क सिर्फ युगों का परिवर्तन है
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