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कौन-सा यज्ञ कराने से घर में मिलता है लाभ. 5 प्रकार के होते हैं यज्ञ(5 types of yagna)

5 प्रकार के होते हैं यज्ञ(5 types of yagna)

कौन-सा यज्ञ कराने से घर में मिलता है लाभ, 5 प्रकार के होते हैं यज्ञ(5 types of yagna)

प्राचीन हिंदू संस्कृति परंपरा से आधुनिक युग तक यज्ञ मनुष्य के जीवन का अभिन्न अंग रहा हैं। और यज्ञ को मानव जीवन का सर्वश्रेष्ठ कर्म माना गया है।हिन्दू संस्कृति में अगर कोई भी शुभ कार्य हो उसमें यज्ञ का होना अनिवार्य है। ऐसे में चाहे सामान्य पूजा पाठ हो, गृह प्रवेश हो या फिर बच्चे का नामकरण संस्कार हो, या शादी-विवाह जैसी महत्वपूर्ण परंपरा ही क्यों ना हो, यज्ञ बेहद महत्वपूर्ण है। लेकिन क्या कभी आपने सोचा है कि यज्ञ कितने प्रकार के होते हैं? अगर आपने नहीं सोचा है तो आइए, आपको बताते हैं 5 प्रकार के होते हैं यज्ञ(5 types of yagna)।

 इनका वर्णन प्राचीन हिंदू ग्रंथों में भी लिखा मिलता है।

ब्रह्म यज्ञ

इस को सबसे पहला यज्ञ माना जाता है। यह यज्ञ मनुष्य ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना मानी जाती है, किंतु इनमें माता-पिता से भी बढ़कर देवताओं को माना जाता है, जिसमें प्रकृति और दूसरे देवी देवता माने जाते हैं।

ईश्वर को ही ब्रह्म कहा जाता है और ब्रह्म यज्ञ उन्हीं को अर्पित होता है। इसमें ईश्वर की उपासना की जाती है।

वेद में कहा गया है कि ब्रह्म यज्ञ प्रत्येक मनुष्य को प्रतिदिन प्रातः व सायंकाल करना चाहिए। सभी मत मतांतर के लोग भी किसी न किसी रूप में संध्या करते हैं।

जिस प्रकार कोई हमें कुछ देता है, तो हम उसे धन्यवाद देते हैं। उसी प्रकार ईश्वर ने हमें बहुत कुछ दिया है। 

हमारे लिए संसार,सूर्य, चंद्रमा और भी बहुत कुछ बनाया। बहुत सारे पदार्थ को दिया। ब्रह्म यज्ञ के माध्यम से हम उनका धन्यवाद करते हैं। उनकी उपासना करते हैं।

ताकि हमें भी उनके गुण प्राप्त हो सकें। कहा कि परमात्मा, निर्विकार, सर्वव्यापक, न्यायकारी व दयालू हैं।

उनमें कोई दोष और विकार नहीं है। वह शरीर धारण नहीं करते हैं, इसलिए वह सर्वज्ञ हैं।

हमें उन्हीं की उपासना करनी चाहिए। मनुष्य शरीर धारण करता है, इसलिए सुख और दुख दोनों भोगता है।

परमात्मा, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता हैं। इसलिए हम उनके गुणों को प्राप्त करने के लिए उनकी उपासना करते हैं।

जीवात्मा का लक्ष्य आनंद पाना है, जो परमात्मा से ही मिल सकता है।

इसलिए सुख-दुख भोक्ता है। जो प्रतिदिन प्रातः और सायं ईश्वर की उपासना करता है, उसके सामने पर्वत के समान भी दुख आता है तो उसे वह झेल लेता है। 

उपासना करने से हमें आत्मिक बल भी मिलता है। सामाजिक, शारीरिक व आत्मिक उन्नति ईश्वर की दया से हीं संभव है।

देव यज्ञ

यह यज्ञ पांचों महायज्ञों में दूसरे स्थान पर है। दिव्य गुणों से युक्त व्यक्तियों को हम देव कहते हैं।

इसका यही अर्थ है सज्जनों की संगति करना।

जो दयालु, परोपकारी, सहृदय व विनीत लोग होते हैं वे सज्जन कहलाते हैं।

ये मनसा, वाचा और कर्मणा एक होते हैं।

ऐसे लोगों की संगति करनी चाहिए। इनके संसर्ग से हमारा चतुर्मुखी विकास होता है,

चारों दिशाओं में हमारा यश फैलता है और हम सफलता के सोपान चढ़ते जाते हैं।

चाहे स्वार्थवश कहें अथवा स्वभाववश दिव्य जनों का साथ कभी नहीं छोड़ना चाहिए।

घर में होने वाले तमाम यज्ञ को देव यज्ञ की ही श्रेणी में रखा जाता है।

इस यज्ञ को करने में विभिन्न पेड़ों की लकड़ियां लगती हैं,

जिसमें आम, जामुन, बड़, पीपल, ढाक, जांटी, और शमी प्रयोग की जाती हैं।

इस यज्ञ-हवन से सकारात्मक उर्जा का संचार बढ़ता है, तथा विषाणु नष्ट होते हैं।

इस यज्ञ से गृहस्थ आश्रम में शुभ और लाभकारी फल प्राप्त होते है।

देवयज्ञ का अर्थ हम कर सकते हैं कि सभी देवों को उनका हिस्सा या अंश दिया जाए।

प्रकृति के कहे जाने वाले ये सभी देव हम पर उपकार करते हैं। इनसे हम प्रतिदिन कुछ न कुछ ग्रहण करते रहते हैं।

यदि ये हमारी तरह स्वार्थी हो जाएँ तो यह ब्रह्माण्ड नष्ट हो जाएगा। हम सभी जीवों का जीवन पल में ही समाप्त हो जाएगा।

 

पितृ यज्ञ

ऋग्वेद में कहा गया है- श्रद्धया दीयते यस्मात् तत् श्राद्धम्, श्रद्धया विधिनाक्रियते यत्कर्मतत्श्राद्धम्।

अर्थात् पूर्वजो के प्रति श्रद्धा पूवर्क व्यक्त किया जाने वाला कर्म श्राद्ध है।

श्राद्ध पूर्वजों के प्रति सच्ची श्रद्धा का प्रतीक है।

मृत व्यक्ति के लिए जो श्रद्धा युक्त होकर तर्पण, पिण्ड, भोजन इत्यादि किया जाता है उसे श्राद्ध कहते है।

शास्त्रों में कहा गया है “आब्रह्मस्तभ पर्यन्तं ये ब्रह्मण्डोदर वर्तिनः”

अर्थात अनन्त ब्रह्मण्ड में भ्रमित जीवात्माओं की तुष्टि के लिए मानवीय कर्तव्य के पालन के लिए प्रत्येक सनातन धर्म वाले को श्राद्ध कर्म करने का शास्त्रीय नियम है। 

महत्व

माता- पिता आदि ने अपनों के सुख-सौभाग्य की वृद्धि के लिए अनेक प्रकार के प्रयत्न किए।

कष्ट सहे उनके उस पितृ ऋण से निवृत करने के लिए श्रद्धा भक्ति पूर्वक श्राद्ध करना आवश्यक है।

शास्त्रानुसार ऐसा व्यक्ति जो मृतक से प्रेम और आदर भाव रखता हो।

उस व्यक्ति का श्रद्धा पूर्वक श्राद्ध करना अनिवार्य है।

अपने परिवार के पूर्वजों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने का श्राद्ध कर्म  एक सशक्त माध्यम है।

श्राद्ध करने का अधिकारी

गरुड़ पुराण के अनुसार संयुक्त परिवार हो तो ज्येष्ठ पुत्र।

ज्येब्ठ पुत्र की अनुपस्थिति में अन्य पुत्र व पौत्र या प्रपौत्र भी श्राद्ध कर सकता है। य

दि परिवार अलग-अलग हो तो सभी अलग-अलग श्राद्ध करें।

श्राद्ध का समय

साल के किसी भी महीने में, पक्ष, तिथि में स्वर्गवासी पितरों के लिए पितृपक्ष (श्राद्धपक्ष) की उसी तिथि को श्राद्ध किया जाता है।

भाद्रपद पूर्णिमा से शुरू होकर अश्विन मास की अमावस्या तक सोलह दिन पितृ पर्व हैं।

वैश्व देवयज्ञ

वैश्व देवयज्ञ, जिसे ‘भूत’ यज्ञ भी कहा जाता है। क्षिति जल पावक गगन समीरापंच तत्व से बना शरीरा

हमें पता ही है किन पांच महाभूतों से हमारा शरीर बना होता है।

 इन्हीं के लिए यह यज्ञ किया जाता है।

बता दें कि भोजन करते समय कुछ अंश अग्नि में डाला जाता है। 

तत्पश्चात कुछ अंश गाय, कुत्ते और कौवे को दिया जाता है।

वेद और पुराण में इसे ‘भूत यज्ञ’ भी कहा गया है।

इस देवयज्ञ का यह विधान किया गया है जिससे मनुष्य और देवी देवताओं के अतिरिक्त सभी भूत-प्राणियों का सत्कार हो।

जीवात्मा अमर व अविनाशी होने के कारण ईश्वर की कृपा और व्यवस्था से शरीर रूपी वस्त्र को बदलते हुए पुनर्जन्म हो प्राप्त होता रहता है।

कभी यह मनुष्य तथा कभी अन्य प्राणी योनियों में कर्मानुसार जन्म पाता है।

वैश्व देवयज्ञ का विधान इस लिये बनाया गया है कि हम भविष्य में जब कभी किसी भी योनि में उत्पन्न क्यों न हो।

हमें व अन्य सभी जीवात्माओं और प्राणियों को इस यज्ञ के द्वारा पोषण प्राप्त होता रहे।

अतिथि यज्ञ

हमारे देश में अतिथि देवो भवकी परंपरा बेहद प्राचीन रही है।

मेहमानों की सेवा करना, उन्हें अन्न-जल से संतुष्ट करना।

साथ ही किसी जरूरतमंद महिला, विद्या प्राप्त करने वाला युवक।

चिकित्सक इत्यादि की सेवा करना ही अतिथि यज्ञ की श्रेणी में आता है।

गृहस्थ आश्रम में सर्वश्रेष्ठ सेवा ‘नर सेवा नारायण सेवा’ को ही बताया गया है।

और ‘अतिथि-यज्ञ’ इसी श्रेणी में आता है।

जो लोग अतिथि सेवा में विश्वास रखते हैं और घर आए अतिथियों का स्वागत-सत्कार करते हैं,

उन्हें जीवन में सफलता हाथ लगती है।

इसी प्रकार अतिथि की आवश्यकता और इच्छा को जानकर जो उनके योग्य वस्तु।

भोजन और दान-दक्षिणा अर्पण करता है, उसे अतिथि यज्ञ का सौ गुना फल प्राप्त होता है।

 

इन परिवारों में हमेशा समृद्धि बनी रहती है और भगवान की कृपा का भी आनंद बरसता रहता है। 

निष्कर्ष

5 प्रकार के होते है यज्ञ (5 types of yagna) और यज्ञ से हमें हमारी संस्कृति का ज्ञान मिलता है।

अब के समय में भी ये यज्ञ का बहुत महत्व है हिंदू परिवार में या ये रीत का सालो से चली आ रही है।

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