हिन्दू धर्म के 24 संस्कारों में से एक है ‘जनेऊ संस्कार’ जिसके अंतर्गत जनेऊ पहनी जाती है इसे ‘यज्ञोपवीत संस्कार’ भी कहते हैं। इस संस्कार में मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी विशेष रूप से अहम होते हैं। मानव जीवन में यज्ञोपवीत ( जनेऊ ) का अत्यधिक महत्त्व है। उपनयन संस्कार को सभी संस्कारों में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है । यज्ञोपवीत के तीन तार मनुष्यों उसके तीन ऋणों का निरन्तर स्मरण कराते रहते हैं। देव ऋण, आचार्य ऋण और मातृ-पितृ ऋण। उपनयन-संस्कार में यज्ञोपवीत धारण कराते हुए पुरोहित द्वारा वेद मंत्र का उच्चारण करते हुए ही “उपनयन संस्कार “ सम्पन्न किया जाता है। नया यज्ञोपवीत धारण करते समय भी इस मंत्र का पाठ किया जाता है । जनेऊ क्यों धारण किया जाता है (Why is Janeu worn)?
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Toggleॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं, प्रजापतेयर्त्सहजं पुरस्तात्। आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं, यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः॥
जनेऊ धारण की परम्परा सदियों पुरानी है और ये वैदिक काल से चली आ रही है, जिसे जनेऊ संस्कार या उपनयन संस्कार भी कहा जाता हैं।
जनेऊ को अन्य नामों से भी जाना जाता है।
उपनयन’ का क्या अर्थ है ?
उपनयन का अर्थ है निकट लाना या पास ले जाना। यानी ब्रह्म (ईश्वर) और ज्ञान के पास ले जाना।
जनेऊ क्या है ?
संस्कृत भाषा में जनेऊ को ‘यज्ञोपवीत’ कहते है। यह सूत से बना पवित्र धागा होता है जो तीन धागों से बना होता है , जिसे व्यक्ति दाईं भुजा के नीचे तथा बाएं कंधे के ऊपर पहनता है। अर्थात् इसे गले में ऐसे डाला जाता है कि वह बाएं कंधे के ऊपर रहे।
जनेऊ में तीन सूत्र होते हैजो त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक , देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण के प्रतीक, सत्व, रज और तम के प्रतीक होते है। ये तीन सूत्र गायत्री मंत्र के तीन चरणों के प्रतीक भी है साथ ही ये तीन आश्रमों के प्रतीक भी है।
इस के एक-एक तार में तीन-तीन तार होते हैं। यानी कुल तारों की संख्या नौ होती है। इनमे एक मुख, दो नासिका, दो आंख, दो कान, मल और मूत्र के दो द्वारा मिलाकर कुल नौ होते हैं। इनका मतलब ये है की हम मुख से अच्छा बोले और अच्छा खाएं, आंखों से अच्छा देंखे और कानों से अच्छा सुने।
इस में पांच गांठ लगाई जाती है जो ब्रह्म, धर्म, अर्ध, काम और मोक्ष का प्रतीक है। ये पांच यज्ञों, पांच ज्ञानेद्रियों और पंच कर्मों के भी प्रतीक है।
जनेऊ की लंबाई कितनी होती है ?
जनेऊ की लंबाई 96 अंगुल होती है क्योंकि जनेऊ धारण करने वाले को 64 कलाओं और 32 विद्याओं को ज्ञान होना चाहिए या सीखने का प्रयास करना चाहिए। 32 विद्याएं जिसमें चार वेद, चार उपवेद, छह अंग, छह दर्शन, तीन सूत्रग्रंथ, नौ अरण्यक इन सब का ज्ञाता होना चाहिए । 64 कलाओं में वास्तु निर्माण, व्यंजन कला, चित्रकारी, साहित्य कला, दस्तकारी, भाषा, यंत्र निर्माण, सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, दस्तकारी, आभूषण निर्माण, कृषि ज्ञान आदि में भी निपूर्ण होना चाहिए।
इस धारण के समय बालक के हाथ में एक डंडा होता है। और वो बालक बिना सिला हुआ एक ही वस्त्र पहनता है और उसके गले में पीले रंग का गमछा होता है। बालक की मुंडन के बाद एक शिखा रखी जाती है। वो बालक पैरों में खड़ाऊ धारण करता है।
मेखला, कोपीन, दंड क्या होते है ?
कमर में बांधने योग्य नाड़े जैसा एक सूत्र होता है जिसे मेखला कहा जाता हैं। मेखला को मुंज और करधनी भी कहते हैं। कपड़े की सिली हुई सूत की डोरी, कलावे के लम्बे टुकड़े से मेखला बनती है। कोपीन लगभग 4 इंच चौड़ी डेढ़ फुट लम्बी लंगोटी को कहा जाता है। इसे मेखला के साथ टांक कर भी रखा जा सकता है। डंडे के रूप में लाठी या ब्रह्म दंड जैसा रोल भी रखा जा सकता है। यज्ञोपवीत यानि जनेऊ को पीले रंग में रंगकर रखा जाता है।
बगैर सिले वस्त्र पहनकर, हाथ में एक डंडा लेकर, कोपीन और पीला गमछा पहनकर विधि-विधान से जनेऊ धारण की जाती है। जनेऊ धारण करने के लिए एक यज्ञ होता है, जिसमें जनेऊ धारक अपने संपूर्ण परिवारजनों और रिश्तेदार के साथ भाग लेता है। यज्ञ द्वारा संस्कार किए जाते है और जनेऊ को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है। इसे गुरु दीक्षा के बाद ही धारण किया जाता है। अपवित्र होने पर इसे तुरंत बदल लिया जाता है।
गायत्री मंत्र से शुरू होता है ये संस्कार
यज्ञोपवीत संस्कार गायत्री मंत्र से शुरू होता है। गायत्री- उपवीत का सम्मिलन ही द्विजत्व है।
यज्ञोपवीत में तीन तार होते है,
गायत्री मन्त्र में तीन चरण हैं।‘तत्सवितुर्वरेण्यं’ प्रथम चरण, ‘भर्गोदेवस्य धीमहि’ द्वितीय चरण, ‘धियो यो न: प्रचोदयात् ’तृतीय चरण है।
गायत्री महामंत्र की प्रतिमा यज्ञोपवीत, जिसमें 9 शब्द, तीन चरण, सहित तीन व्याहृतियां समाहित हैं।
इस मन्त्र से किया जाता है यज्ञोपवीत संस्कार
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् । आयुष्यमग्रं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।।
यज्ञोपवित संस्कार आरम्भ करने से पूर्व बालक का मुंडन किया जाता है।
तत्पश्चात बालक को स्नान इत्यादि करवाकर उसके माथे और देह पर चंदन और केसर का लेप लगाया जाता हैं और जनेऊ पहनाकर ब्रह्मचारी बनाया जाता हैं।
उसके बाद विधिपूर्वक गणेश आदि देवताओं का पूजन फिर बालक को अधोवस्त्र के साथ माला पहनाकर बैठाया जाता है।
इसके बाद दस बार गायत्री मंत्र का उच्चारण करके देवताओं के आह्वान किया जाता है फिर बालक से शास्त्र शिक्षा और व्रतों के पालन का वचन लिया जाता है।
उसके बाद गुरु मंत्र पढ़ कर कहते है कि आज से बालक अब ब्राह्मण हुआ अर्थात ब्रह्म (सिर्फ ईश्वर को मानने वाला) को मानने वाला।इसके बाद गमछा ओढ़कर मुंज (मेखला) का कंदोरा बांधते हैं और एक डंडा हाथ में देते हैं। उसके पश्चात् वह बालक वहां उपस्थित लोगों से भीक्षा मांगता है।
जनेऊ धारण करने की उम्र क्या होती है ?
जन्म से आठवें वर्ष तक बालक का उपनयन संस्कार किया जाना चाहिए।
जनेऊ पहनने के बाद ही बालक का विद्या आरम्भ होता है।
किसी भी धार्मिक कार्य, पूजा-पाठ, यज्ञ आदि करने के पूर्व जनेऊ धारण करना जरूरी है।
हिन्दू धर्म में जब तक आप जनेऊ धारण नहीं किया जाता तब तक आप का विवाह पूर्ण नहीं होता। That’s Why is Janeu worn.
जनेऊ धारण के नियम क्या है ?
- मल-मूत्र विसर्जन के दौरान जनेऊ को दाहिने कान पर चढ़ा लेना चाहिए ।
- हाथ स्वच्छ करने के उपरांत ही उतारना चाहिए।
- अगर जनेऊ का कोई तार टूट जाए या 6 माह से अधिक समय हो जाए, तो जनेऊ बदल देना चाहिए।
- धागे कच्चे और गंदे होने लगें, तो तुरंत ही बदल देना उचित है।
- घर में जन्म-मरण के सूतक के बाद जनेऊ बदल देने की परम्परा है।
- जनेऊ शरीर से बाहर नहीं निकाला जाता चाहिए।
- भूल से उतर जाए, तो प्रायश्चित की एक माला जप करने या बदल लेने का नियम है।
- बालक का यज्ञोपवीत संस्कार करना तभी करना चाहिए जब इन नियमों के पालन करने योग्य हो जाएं।
जनेऊ का वैज्ञानिक महत्व क्या है ?
- मल-मूत्र विसर्जन के दौरान जनेऊ को दाहिने कान पर धारण करने से वह नस दबती है।
- जिससे मस्तिष्क की कोई सोई हुई तंद्रा कार्य करती है।
- जनेऊ को सदैव धारण करने से वह हमेशा हृदय के पास से गुजरता है।
- इससे रक्त संचार सुचारू रूप से संचालित होने लगता है जिससे हृदय रोग की संभावना कम हो जाती है।
- मनुष्य के अंडकोष और गुप्तेन्द्रियों दाएं कान की नस से जुड़ी हुई है।
- मल-मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ लपेटने से शुक्राणुओं की रक्षा होती है।
- जनेऊ को दायें कान पर लपेटने से मनुष्य में सूर्य नाड़ी जागृत होती है।
- पेट संबंधी रोग और रक्तचाप की समस्या से भी बचाव होता है जब कान पर जनेऊ लपेटा जाता है।
- जनेऊ धारण करने से विधुत प्रवाह रेखा नियंत्रित रहती है जिससे काम-क्रोध पर नियंत्रण आसानी से रखा जाता है।
- जनेऊ पहनने वाला व्यक्ति सफाई का पूरा ध्यान रखता है।
- जिससे उसके दांत, मुंह, पेट, कृमि, जीवाणुओं के रोगों से बचते रहते है।
- जनेऊ धारण करने वाला साफ सफाई के कारण अपने चारो तरफ पवित्र वातावरण बना के रखता है।
- जिससे उसके मन में बुरे विचार नहीं आते।
- जनेऊ धारण करने वाले को कब्ज, एसीडीटी, पेट रोग, मूत्रन्द्रीय रोग, रक्तचाप।
- हृदय के रोगों सहित अन्य संक्रामक रोग नहीं होते।
- जनेऊ धारण करने से बार-बार बुरे स्वप्न का आना समाप्त हो जाता है।