सनातन संस्कृति में प्रत्येक धार्मिक अनुष्ठान हवन के बिना अपूर्ण होता है । यज्ञ अथवा हवन करने के साक्ष्य सिन्धु सभ्यता के अवशेषों विशेषकर कालीबंगा से भी प्राप्त होते हैं।
हवन के दौरान जो धुआँ निकलता है उससे वायुमंडल शुद्ध हो जाता है। हवन में इस्तेमाल होने वाली सामग्री को एक विशेष प्रकार से निर्मित किया जाता है जो सेहत के लिए अत्यंत फ़ायदेमंद होती है।
इसमें गाय के गोबर से बने उपले का इस्तेमाल भी किया जाता है। हवन में हानिकारक जीवाणु नष्ट करने की 94 प्रतिशत क्षमता होती है जिससे कई प्रकार की बीमारियों से राहत पायी जा सकती है।
हवन कुंड में अग्नि प्रज्वलित करने के उपरांत इस पवित्र अग्नि में फल, शहद, घी, नारियल, अन्न इत्यादि की आहुति देना अहम् माना जाता था। हमारे ऋषि मुनि वायु प्रदूषण को कम करने के लिए नियमित रूप से तथा फलदायी यज्ञ किया करते थे। रामायण तथा महाभारत में पुत्रेष्टि यज्ञ, अश्वमेध यज्ञ, राजसूय यज्ञ आदि यज्ञ करवाए जाने का स्पष्ट प्रमाण मिलता है।
यज्ञ अथवा हवन में प्रयुक्त होने वाली विशिष्ट गुणों से युक्त सामग्री को समिधा कहा जाता है। समिधा में नवग्रहों की शान्ति के प्रतीक रूप में नौ भिन्न-भिन्न काष्ठीय एवं शाकीय पौधों का समिधा के रूप में प्रयोग किया जाता है।
मंगल ग्रह की बाधा के उपचार तथा त्वचा संबंधी रोगों के निवारण के लिए खैर की लकड़ी प्रयोग में लायी जाती है। बुध ग्रह की शांति के लिए लटजीरा का प्रयोग किया जाता है। लटजीरा मानसिक रोग और मुंह के रोगों के उपचार के लिए इस्स्तेमाल होता है।